एक दिन युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा- “भाइयो! युद्ध की संभावना ही मिटा देने के उद्देश्य से मैं यह शपथ लेता हूँ कि आज़ से तेरह बरस तक मैं अपने भाइयों या किसी और बंधु को बुरां-भला नहीं कहूँगा। सदा अपने भाई -बंधुओं की इच्छा पर ही चलूँगा। मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगा, जिससे आपस में मनमुटाव होने का डर हो, कयोंकि मनमुटाव के कारण ही झगडे होते हैं। इसलिए मन से क्रोध को एकबारगी निकाल दूँगा। दुर्योधन और दूसरे कौरवों की बात कभी न टालूँगा। हमेशा उनकी इच्छानुसार काम करूँगा ।”
युधिष्ठिर की बातें उनके भाइयों को भी . ठीक लगीं। वे भी इसी निश्चय पर पहुँचे कि झंगड़े-फसाद का हमें कारण नहीं बनना चाहिए। उधर युधिष्ठिर चिंतित हो रहे थे कि कहीं कोई लडाई-झगडा न हो जाए और इधर राजसूय यज्ञ का ठाट-बाट तथा पांडवों की यश-समृद्धि का स्मरण ही दुर्योधन के मन को खाए जा रहा था। वह ईर्ष्या की जलन से बेचैन हो रहा था। दुर्योधन ने यह भी देखा कि कितने ही देशों के राजा पांडवों के परम मित्र बने हैं।
इस सबके स्मरण मात्र से उसका दुख और भी असह्य हो उठा। पांडवों के सौभाग्य की याद करके उसकी जलन बढ़ने लगती थी। अपने महल के कोने में इसी भाँति चिंतित और उदास भाव से वह एक रोज़ खड़ा हुआ था कि उसे यह भी पता न लगा कि उसकी बगल में उसका मामा शकुनि आ खड़ा हुआ है।
"बेटा! यों चिंतित और उदास क्यों खड़े हो? कौन सा दुख तुमको सता रहा है? " शकुनि ने पूछा। दुर्योधन लंबी साँस लेते हुए बोला-"मामा, चारों भाइयों समेत युधिष्ठिर ठाट-बाट से राज कर रहा है। यह सब इन आँखों से देखने पर भी मैं कैसे शोक न करूँ? मेरा तो अब जीना ही व्यर्थ मालूम होता है!"
शकुनि दुर्योधन को सांत्वना देता हुआ बोला-"बेटा दुर्योधना! इस तरह मन छोटा क्यों करते हो? आखिर "पांडव तुम्हारे भाई ही तो हैं। उनके सौभाग्य पर तुम्हें जलन नहीं होनी चाहिए। न्यायपूर्वक जो राज्य उनको प्राप्त हुआ है, उसी का तो उपभोग वे कर रहे हैं। पांडवों ने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं है। जिस पर उनका अधिकार था, वही उन्हें मिला है। अपनी शक्ति से प्रयत्न करके यदि उन्होने अपना राज्य तथा सत्ता बढ़ा ली है, तो तुम जी छोटा क्यों करते हो? और फिर पांडवों को शक्ति और सौभाग्य से तुम्हारा बिगड़ता क्या है? तुम्हें कमी किस बात की है? द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा तथा कर्ण जैसे महावीर तुम्हारे पक्ष में हैं। यही नहीं, बल्कि मैं, भीष्म, कृपाचार्य, जयद्रथ, सोमदत्त सब तुम्हारे साथ हैं। इन साथियों की सहायता से तुम सारे संसार पर विजय पा सकते हो। फिर दुख क्यों करते हो?"
यह सुनकर दुर्योधन बोला-"जब ऐसी बात है, तो मामा जी, हम इंद्रप्रस्थ पर चढाई ही क्यो न कर दें?"
शकुनि ने कहा"युद्ध की तो बात ही न करो। वह खतरनाक काम है। तुम पांडवों पर विजय पाना चाहते हो, तो युद्ध के बजाए चतुराई से काम लो। मैं तुमको ऐसा उपाय बता सकता हूँ, जिससे बगैर लड़ाई के ही युधिष्ठिर पर सहज में विजय पाई जा सके।”
दुर्योधन की आँखे आशा से चमक उठी। बडी उत्सुकता के साथ पूछा, "मामा जी! आप ऐसा उपाय जानते हैं?”
शकुनि ने कहा" दुर्योधन, युधिष्ठिर को चौसर के खेल का बडा शौक है। पर उसे खेलना नहीं आता है। हम उसे खेलने के लिए न्यौता दें, तो युधिष्ठिर अवश्य मान जाएगा। तुम तो जानते ही हो कि मैं मँजा हुआ खिलाडी हूँ। तुम्हारी और से मैं खेलूँगा और युधिष्ठिर को हराकर उसका सारा राज्य और ऐश्वर्य, बिना युद्ध के आसानी से छीनकर तुम्हारे हवाले कर दूँगा। "
इसके बाद दुर्योधन और शकुनि धृतराष्ट के पास गए। शकुनि ने बात छेडी-"राजन्! देखिए तो आपका बेटा दुर्योधन शोक और चिंता के कारण पीला-सा पड़ गया है।”
अंधे और बूढ़े धृतराष्ट्र को अपने बेटे पर अपार स्नेह था। शकुनि की बातों से वह सचमुच बड़े चितिंत हो गए। अपने बेटे को उन्होंने छाती से लगा लिया और बोले-"बेटा मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आता कि तुम्हें किस बात का दुख हो सकता है। तुम्हारे पास ऐश्वर्य की कमी नहीं है। सारा संसार तुम्हारी आज्ञा पर चल रहा है। फिर तुम्हें चिंता काहे की?"
लेकिन शकुनि ने घृतराष्ट को सलाह दी कि चौसर के खेल के लिए पांडवों को बुलाया जाए। दोनों के इस प्रकार आग्रह करने पर भी धृतराष्ट्र ने तुरंत हां नहीं की। वह बोले-"मुझे यह उपाय ठीक नहीं जंच रहा है। मैं विदुर से भी तो सलाह कर लूँ। वह बड़ा समझदार है। मैं हमेशा से उसका कहा मानता आया हूँ। उससे सलाह कर लेने के बाद ही कुछ तय करना ठीक होगा। ” पर दुर्योधन को विदुर से सलाह करने की बात पसंद नहीं आई।
घृतराष्ट बोले'-" जुए का खेल वैर…विरोध की ज़ड़ होता है। इसलिए बेटा, मेरी तो यह राय है कि तुम्हारा यह विचार ठोक नहीं है। इसे छोड़ दो।"
दुर्योधन अपने हठ पर दृढ़ रहता हूआ बोला…" चौसर का खेल कोई हमने तो ईजाद किया नहीं है। यह तो हमारे पूर्वजों का ही चलाया हुआ है। " दुर्योधन के इस तरह ,आग्रह करने पर आखिर धृतराष्ट ने घुटने टेक दिए। बेटे का आग्रह मानकर धृतराष्ट ने चौसर खेलने के लिए अनुमति दे दी और सभा-मंडप बनाने को भी आज्ञा दे दी, परंतु विदुर से भी उन्होंने इस बारे में गुपचुप सलाह की।
विदुर बोले-"राजन्, सारे वंश का इससे नाश हो जाएगा। इसके कारण हमारे कुल के लोगों में आपसी मनमुटाव और झगड़े -फसाद होंगे। इसकी भारी विपदा हम पर आएगी।"
धृतराष्ट्र ने कहा -“भाई विदुर! मुझे खेल का भय नहीं है। लेकिन हम क्या कर सकते
हैं? सो तुम ही युधिष्ठिर के पास जाओं और उसे मेरी तरफ़ से खेल के लिए न्यौता देकर बुला लाओ । "
अपने बेटे पर उनका असीम स्नेह उनकी कमजोरी थी और यही कारण था कि उन्होंने बेटे की बात मान ली।
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