Albert Einstein Story In Hindi


सफलता की वो कहानी, जिसने रच दिया इतिहास

आइंस्टाइन संसार के सबसे बड़े वैज्ञानिक और गणितशास्त्री थे। विज्ञान के क्षेत्र में अनेक बड़ी-बड़ी खोजें करके उन्होंने मनुष्य जाति की बहुत अमूल्य सेवा की है। वे सिर्फ़ वैज्ञानिक या गणितशास्त्री ही नहीं थे। मानवता के बड़े पुजारी और विश्वशांति के प्रेमी भी थे। यही कारण है कि इतने महान वैज्ञानिक होते हुए भी उन्हेंने ऐसी खोजों में अपनी प्रतिभा का दुरुपयोग नहीं किया, जो मानव जाति का नाश करने वाली हों।


उनका जीवन बहुत सादा था। उसमें आडंबर और तड़क भड़क का कोई स्थान न था। मान-सम्मान की भी उन्हें कोई परवाह नहीं थी। उनकी बड़ी-बड़ी शोधों के लिए जब सारी दुनिया उन पर मुग्ध हो जाती थी, तब भी वे बधाइयों और प्रशंसा के झंझट से बचने का रास्ता खोजते थे। प्रकृति के दो महान बलों- गुरुत्वाकर्षण और विद्युत चुंबकीय शक्ति पर काबू रखने वाले नियम की खोज का उनका सिद्धांत जिस दिन दुनिया के सामने रखा गया उसी दिन आइंस्टाइन की पचासवीं वर्षगाँठ थी। इससे पहले भी उनका यश सारी दुनिया में फैल चुका था। लेकिन इस खोज ने उनके यश में चार चाँद लगा दिए। गरीब-अमीर सब उनके साथ एकरूप होने का अनुभव करने लगे कोई मित्र के नाते, कोई परिचित के नाते, तो कोई समकालीन होने के नाते, उन्हें बधाई भेजने लगे। जाति, धम और राष्ट्र की मर्यादा को लाँघकर हर कोई विश्व-नागरिक के रूप में उन्हें प्रेम करने लगा।

उस दिन बधाई के संदेशों की तो कोई सीमा नहीं थी। बेचारा डाकिया परेशान था कि ये सब संदे आइंस्टाइन तक कैसे पहुँचाए जाएँ? डाक रखने के लिए दी हुई डाकखाने की थैली भी छोटी पड़ती थी और ता को वज़न भी कितना ज्यादा था। उन्हें उठाया कैसे जाए? आखिरकार बोरे भर-भरकर तार आइंस्टाइन के यह पहुँचाए गए। तार ऑफ़िस के अधिकारियों ने अपने ग्राहकों को बताया कि आइंस्टाइन का पता छोटा लिखा जाए मैं भी चलेगा।
तरह-तरह की कीमती चीज़ो के पार्सल उनके लिए भेंट में आ रहे थे, लेकिन पार्सल खोलने में या भेंट में आई हुई चीजें देखने में आइंस्टाइन को कोई दिलचस्पी नहीं थी। इन सब बातों की तरफ़ उनकी पत्नी श्रीमती एल्सा एल्सा ध्यान देती थीं। यह सब अकेले करना एल्सा के लिए भी मुमकिन नहीं था, इसलिए आइंस्टाइन के कुछ मित्रों को पार्सल खोलकर उपहार में आई हुई चीज़ें देखने और रखने के काम में लगाया गया। श्रीमती कहतीं, "क्या-क्या चीज़े भेट में आई हैं, यह तो मुझे उनसे कहना ही चाहिए न?" लेकिन इस बेकार के झंझट से बचने के लिए आइंस्टाइन अपनी वर्षगाँठ से कुछ दिन पहले ही एक गाँव में रहने चले गए थे।

आज पति की वर्षगाँठ और सम्मान का दिन दोनों एक साथ मिल गए थे। श्रीमती एल्सा दोपहर को आइंस्टाइन से मिलने गाँव जाने वाली थीं। इससे पहले उन्हें कुछ ज़रूरी काम पूरे करने थे। अभी वे सवेरे जागी भी नहीं थीं कि टेलीफोन की घंटी टन-टन करने लगी। उन्होंने जागकर फ़ोन उठाया। आइंस्टाइन खुद बोल रहे थे– “मेरे सहायक से कहना कि उन 'केलक्युलेशन्स' (हिसाबों) में गलती रह गई है। उसे सुधार दें।"

श्रीमती एल्सा बोली, “लेकिन आज कौन-सा दिन है, याद है न?" आइंस्टाइन बिल्कुल भूल गए थे।

अपनी खोज के विचारों में वे इतना डूब जाते थे कि ऐसी मामूली बातें उन्हें याद ही नहीं रहती थीं। जब श्रीमती एल्सा ने वर्षगाँठ की याद दिलाई, तब वे हँसकर बोले, "वर्षगाँठ का यह बेकार का आडंबर किसलिए है? अपने सहायक से मुझे जो कहना है, वही महत्त्व की बात है। उनसे ज़रूर कह देना। भूलना मत।"

बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ, साहित्यकार और वैज्ञानिक उन्हें बधाई देने आए। आज वे सारी दुनिया के प्रेम, प्रशंसा और सम्मान के पात्र बने थे। दुनिया में ऐसा अनोखा मान-सम्मान और यश प्राप्त करने वाले पुरुष के हृदय पर राज करने वाली श्रीमती एल्सा के मन में उस दिन कैसे-कैसे भाव उठते होंगे? अपने पति की सादगी, नम्रता और तड़क-भड़क से दूर रहने वाले स्वभाव को वे अच्छी तरह जानती थीं, लेकिन आज तो बड़े-बड़े लोग उनसे मिलने आएँगे। उस समय वे बढ़िया कपड़े पहनें, तो कैसा अच्छा रहे। अधिकतर पत्नियाँ यह पसंद करती हैं कि उनके पति बढ़िया कपड़ों से सज-धजकर समाज में घूमें फिरें आइंस्टाइन की पत्नी भी इस भावना से मुक्त नहीं थीं, लेकिन पति की आदतों को वे भली-भाँति जानती थीं। उन्हें डर था कि वर्षगाँठ के दिन भी आइंस्टाइन कहीं अपने रोज़ के कपड़े न पहन लें; इसलिए उन्होंने उनकी एक पुरानी पतलून खोजकर उस दिन सवेरे पहनी और मित्रों के आने की राह देखने लगे।

जब श्रीमती एल्सा सारी भेंटे और बधाई के कीमती संदेश लेकर आइंस्टाइन के पास प्रसन्न होती आईं, तब उन्हें अचरज हुआ कि एल्सा ये सब क्या लाई है? परंतु पत्नी ने जब पति को वह छिपाई हुई पतलून पहने देखा, तो खूब चिढ़ीं।

“तुम्हें कुछ ध्यान भी है? आज बड़े-बड़े मशहूर लोग तुमसे मिलने आने वाले हैं। वे जब तुम्हें इस पुरानी पतलून में देखेंगे, तब मेरे लिए शर्म से मरने के सिवा क्या बाकी रहेगा?”

फिर आइंस्टाइन को उलाहना देते हुए वे बोली, “सवेरे ही मैंने तुम्हें याद दिलाया था कि आज तुम्हारी वर्षगाँठ है। क्या उसे भूल गए?"
आइंस्टाइन ने हँसकर कहा, "ऐसी बातें मुझे याद रहती हैं, एल्सा?"

वे बोली, "इसके सिवा दूसरी कोई अच्छी पतलून तुम्हें इस घर में नहीं मिली?" आइंस्टाइन बोले, "अब जाने भी दो इस बात को। इससे काम चल जाएगा।"

“लेकिन मैंने तो इसे छिपा दिया था। तुमने कहाँ से ढूँढ़ निकाली?” आइंस्टाइन ने हँसकर कहा, “तुम्हारी छिपाने की जगह क्या मैं नहीं जानता?”

एल्सा चिढ़कर बोलीं, “आज तुम्हारे मित्र तुमसे मिलने आने वाले हैं। भला आज तो इससे बचते!” आइंस्टाइन ने भी हँस कर कहा, “कैसी अजीब हो तुम भी। अरे, जो लोग मुझसे मिलने आ रहे हैं, वे क्या मेरी पतलून देखने के लिए आएँगे?"

इस विनोद भरे जवाब ने एल्सा को चूप कर दिया लेकिन इस जवाब में ही आइंस्टाइन के जीवन का एक

पहलू भी चमक उठा।

एक बार फ़ोटोग्राफ़र उनका फोटो ले रहा था। इससे वे चिढ़ गए और फोटो बिगड़ जाए, इस हेतु जीभ को मुँह से बाहर निकालकर खड़े रहे। यह फोटो भी दुनिया में मशहूर हो गया और संसार के एक महान वैज्ञानिक की बालकों जैसी निर्दोषता का फोटो खींच लेने के लिए फ़ोटोग्राफ़र की बहुत प्रशंसा हुई। एक बार आइंस्टाइन की ख्याति के बारे में दो अमेरिकी विद्यार्थी आपस में बहस करने लगे। एक ने कहा,

"प्रो० आइंस्टाइन ख्याति की इतनी ऊँची चोटी पर पहुँच गए हैं कि यूरोप में शायद ही कोई ऐसा होगा, जो उन्हें न

जानता हो।”

दूसरे विद्यार्थी ने इसका प्रयोग किया। उसने आइंस्टाइन को पत्र लिखा और लिफ़ाफे पर सिर्फ इतना पता

लिखा- प्रो० आइंस्टाइन, यूरोप डाक विभाग ने जब वह पत्र आइंस्टाइन के मकान पर पहुँचाया, तो अत्यंत अचंभे में पड़कर आइंस्टाइन

बोले, "वाह-वाह! डाक महकमे की व्यवस्था कितनी बढ़िया है।"

लेकिन पूरे पते के बिना डाक-महकमा उन्हें खोज कैसे सका? उनके मन में यह विचार आए बिना नहीं रहा कि यह सब ख्याति की करामात है।
आइंस्टाइन कभी-कभी सिनेमा देखने भी जाते थे। एक बार सिनेमाघर में 'एमिल जोला का जीवन' नामक फिल्म लगी। उसे देखने के लिए वे अपने सहायक के साथ प्रयोगशाला से सिनेमाघर गए। अंदर जाने पर पता चला कि अभी खेल शुरु होने में पन्द्रह मिनट की देर है। अंदर बैठे रहने से तो थोड़ा बाहर घूम आना ज्यादा अच्छा है, ऐसा सोचकर वे उठे लेकिन टिकट तो दरबान ने ले लिया था। अब क्या हो? एक मामूली आदमी की तरह वे दरबान के पास जाकर बोले, "भाई, अभी खेल शुरू होने में देर है। मुझे बाहर जाना है। क्या हो आऊं?" दरबान ने कहा, “जाइए। कोई हर्ज नहीं।" लेकिन आइंस्टाइन के मन में थोड़ा संकोच हो रहा था। उन्होंने अपना टिकट तो उसे दे दिया था। फिर से अंदर जाते समय अगर दरबान टिकट माँग बैठे, तो क्या हो? इसलिए ज्यादा सफ़ाई के ख्याल से उन्होंने दरबान से पूछा, "मैं बाहर तो जा रहा हूं लेकिन दुबारा अंदर जाऊ, तब मुझे तुम पहचान तो लोगे न?" दरबान समझा कि विश्वविख्यात वैज्ञानिक मुझसे मज़ाक कर रहे हैं। वह हंसकर बोला, “मैं कहता हूँ कि प्रो० अल्बर्ट आइंस्टाइन जी मैं आपको ज़रूर पहचान लूँगा।”

वे बाहर गए, लेकिन उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि यह दरबान उनका नाम कैसे जानता है? लोग उन्हें इतनी आसानी से पहचान लेते थे, इसके लिए वे अखबार वालों को ही दोषी मानते थे।

उनका दिल हमेशा एक अज्ञात और अप्रसिद्ध आदमी की तरह रहने और जीने को तड़पा करता था।

प्रसिद्धि की जगमगाहट और मान-सम्मान से वे हमेशा दूर भागते थे। 

एक मामूली आदमी दुनिया की जो सेवा करता है, उससे कुछ अधिक सेवा वे करते हैं- ऐसी भावना कभी उनके मन में नहीं उठती थी। इस प्रकार ख्यातिऔर यश के लोभ से बिल्कुल दूर रहकर विज्ञान के क्षेत्र में मनुष्य-जाति की अनेक तरह से सेवा करने वालेआइंस्टाइन का जीवन सफल हुआ ही कहा जाएगा।

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