Mahabharat Katha | लाख का घर | लाक्षागृह | Chapter 9

  भीमसेन का शरीर-बल और अर्जुन की युद्ध…कुशलता देखकर दुर्योधन की जलन दिन-पर-दिन बढ़ती ही गई। वह ऐसे उपाय सोचने लगा कि जिससे पांडवों का नाश हो सके। इस कुमंत्रणा में उसका मामा शकुनि और कर्ण सलाहकार बने हुए थे। बूढे धृतराष्ट्र बुद्धिमान थे। अपने भतीजों से उनको स्नेह भी काफी था , परंतु अपने पुत्रों से उनका मोह भी अधिक था। द्रढ़ निश्चय की उनमें कमी थी, पर वह किसी बात पर वह स्थिर नहीं रह सकते थे। अपने बेटे पर अंकुश रखने की शक्ति उनमें नहीँ थी। इस कारण यह जानते हुए भी कि दुर्योधन कुराह पर चल रहा है,उन्होंने उसका ही साथ दिया। 


इधर पांडवों की लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। चौराहों और सभा-समाजों में लोग कहते कि राजगद्दी पर बैठने के योग्य तो युधिष्ठिर ही हैं। वे कहते थे-" धृतराष्ट्र तो जन्म से अंधे थे, इस कारण उनके छोटे भाई पांडु ही सिंहासन पर बैठे थे। उनकी अकाल मृत्यु हो जाने और पांडवों के बालक होने के कारण कुछ समय के लिए धृतराष्ट्र ने राज-काज संभाला था। अब युधिष्ठिर बड़े हो गए हैं, तो फिर आगे धृतराष्ट्र को राज्य अपने ही अधीन रखने का क्या अधिकार है? पितामह भीष्म का तो कर्तव्य है कि वह धृतराष्ट्र से राज्य का भार युधिष्ठिर को दिला दें। युधिष्ठिर ही सारी प्रजा के साथ न्यायपूर्बक व्यवहार कर सकेगे। ” 

ज्यों…ज्यों पांडवों की यह लोकप्रियता दिखाई देती थी, ईर्ष्या से वह और भी अधिक कुढ़ने  लगता था। एक दिन धृतराष्ट्र को अकेले में पाकर दुर्योधन बोला-“पिता जी, पुरवासी तरह-तरह की बातें करते हैं। जन्म से दिखाई न देने के कारण आप बडे होते हुए भी राज्य से वचित ही रह गए । राज-सत्ता आपके छोटे भाई के हाथ में चली गई। अब यदि युधिष्ठिर को राजा बना दिया गया, तो फिर पीढियों तक हम राज्य की आशा नहीं कर सकेगे। पिता जी, हमसे तो यह अपमान न सहा जाएगा।" 

यह सुनकर राजा धृतराष्ट्र सोच में पड़ गए। बोले-"बेटा तुम्हारा कहना ठीक है। लेकिन युधिष्ठिर के विरुद्ध कुछ करना भी तो कठिन है। युधिष्ठिर धर्मानुसार चलता है, सबसे समान स्नेह करता है, अपने पिता के समान ही गुणवान है। इस कारण प्रजाजन भी उसे बहुत चाहते हैं। ” 

यह सुनकर दुर्योधन बोलय-"पिता जी , आपको और कुछ नहीं करना है, सिर्फ पांडवों को किसी-न-किसी बहाने वारणावत के मेले में भेज दीजिए। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं इतनी सी बात से हमारा कुछ भी बिगाड नहीं होगा।”

इस बीच अपने पिता पर और अधिक दबाव डालने के इरादे से दुर्योधन ने कुछ कूटनीतिज्ञों को अपने पक्ष में मिला लिया। वे बरी-बरी से धृतराष्ट्र के पास जाकर पांडवों के विरुद्ध उन्हें उकसाने लगे। इनमें कर्णिक नाम का ब्राह्मण मुख्य था, जो शकुनि का मंत्री था । उसने धृतराष्ट्र को राजनीतिक चालों का भेद बताते हुए अनेक उदाहरणों एवं प्रमाणों से अपनी दलीलों की पुष्टि की। अंत में बोला-"राज़न्! जो ऐश्वर्यवान है, वही संसार में श्रेष्ठ माना जाता है। यह बात ठीक है कि पांडव आपके भतीजे हैं, परंतु वे बड़े शक्ति-संपन भी हैं। इस कारण अभी से चौकन्ने हो जाइए। आप पांडु-पुत्रों से अपनी रक्षा कर लीजिए, वरना पीछे पछताइएगा।” 

कर्णिक की बातों पर धृतराष्ट्र विचार कर रहे थे कि दुर्योधन ने आकर कहा-“पिता जी, आप अगर किसी तरह पांडवों को समझाकर वारणावत मेज दें, तो नगर और राज्य पर हमारा शासन पक्का हो जाएगा। फिर पांडव बड़ी खुशी से लौट सकते हैं और हमें उनसे कोई खतरा नहीं रहेगा।" दुर्योधन और उसके साथी धृतराष्ट्र को रात-दिन इसी तरह पांडवों के विरुद्ध कुछ न कुछ कहते-सुनाते रहते और उन पर अपना दबाव डालते रहते थे। आखिर धृतराष्ट्र कमजोर पड गए और उनको लाचार होकर अपने बेटे की सलाह माननी पडी! दुर्योधन के पृष्ठ-पोषको ने 

वारणावत की सुंदरता और खूबियों के बारे में पांडवों को बहुत ललचाया। कहा कि वारणावत में एक भारी मेला होनेवाला है, जिसकी शोभा देखते ही बनेगी। उनकी बातें सुन-सुनकर खुद पांडवों को भी वारणावत जाने की उत्सुकता हुई, यहाँ तक कि उन्होंने स्वयं आकर धृतराष्ट्र से वहाँ जाने की अनुमति माँगी। धृतराष्ट्र की अनुमति पाकर पांडव बड़े खुश हुए और भीष्म आदि से विदा लेकर माता कुंती के साथ वारणावत के लिए रवाना हो गए। 

पांडवों के चले जाने की खबर पाकर दुर्योधन की खुशी की तो सीमा न रही। वह अपने दोनों साथियों-कर्ण एवं शकुनि के साथ बैठकर पांडवों तथा कुंती का काम तमाम करने का उपाय सोचने लगा। उसने अपने मंत्री पुरोचन को बुलाकर गुप्त रूप से सलाह दी और एक योजना बनाई। पुरोचन ने यह सारा काम पूर्ण सफलता के साथ पूरा करने का वचन दिया और तुरंत वारणावत के लिए रवाना हो गया। एक शीघ्रगामी रथ मर बैठकर पुरोचन पांडवों से बहुत पहले वारणावत जा पहुँचा। 

वहाँ जाकर उसने पांडवों के ठहरने के लिए सन, घी, मोम, तेल, लाख, चरबी आदि जल्दी आग पकड़नेवाली चीजों को मिट्टी में मिलाकर एक सुंदर भवन बनवाया। इस बीच अगर पांडव वहाँ जल्दी पहुँच गए, तो कुछ समय उनके ठहरने के लिए एक और जगह का प्रबंध पुरोचन ने कर रखा था । दुर्योधन की योजना यह थी कि कुछ दिनों तक पांडवों को लाख के भवन में आराम से रहने दिया जाए और जब वे पूर्ण रूप से नि:शंक हो जाएँ, तब रात में भवन में आग लगा दी जाए, जिससे पांडव तो जलकर भस्म हो जाएँ और कौरवों पर भी कोई दोष न लगा सके। 

No comments:

Powered by Blogger.