माँ
चुपके-चुपके मन ही मन में
खुद को रोते देख रहा हूँ
बेबस होके अपनी माँ को बूढ़ा होते देख रहा हूँ
रचा है बचपन को आँखों में
खिल-खिला सा माँ का रूप
जैसे जाड़े के मौसम में
नरम-गरम मखमल सी धूप
धीरे-धीरे सपनों के इस
रूप को खोते देख रहा हूँ
बेबस होके अपनी माँ को
बूढ़ा होते देख रहा हूँ
छूट-छूट गया है धीरे-धीरे
माँ के हाथ का खाना भी
छीन लिया है वक्त ने उसकी
बातों भरा खजाना भी
घर की मालकिन को
घर के कोने में सोते देख रहा हूँ
चुपके-चुपके मन ही मन में
खुद को रोते देख रहा हूँ
बेबस होके अपनी माँ को
बूढ़ा होते देख रहा हूँ
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Very amazing
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