सच्चा धन | Short story in Hindi

 किसी गाँव में मोहनदास नाम का एक आदमी रहता था उसके तीन बेटे थे-रमेश, सुरेश और महेश। मोहनदास जूते बनाने का काम करता था। वह बहुत सुंदर और टिकाऊ जूते बनाता था। उसके बनाए बाजार में ऊँचे दामों पर बिकते थे। मोहनदास सप्ताह में छह दिन खूब मेहनत से जूते बनाता और सातवें दिन पड़ोस के कस्बे में लगने वाले बाजार में उन्हें बेच आता। इससे उसे अच्छी कमाई हो जाती थी। वह अपने परिवार के खाने-पहनने में कोई कमी नहीं रखता था। उसने अपने लिए एक बड़ा-सा घर भी बनवा लिया था।

एक बार मोहनदास बीमार पड़ गया। काफी इलाज कराया, पर कोई लाभ नहीं हुआ । उसे लगा कि उसका अंतिम समय निकट आ गया है। उसने अपने तीनो बेटों को बुलाया और कहा- अब मैं अधिक दिन जीवित नहीं रहूँगा। मेरे पास जो कुछ भी है, उसे मैं अपने सामने ही तुम तीनों में बाँट देना चाहता हूँ, जिससे मेरे बाद तुम तीनों में कोई लड़ाई झगड़ा न हो।" पिता की यह बात सुनकर

लड़कों की आँखे भर आईं। बड़ा रमेश बोला- "पिता जी! आप ऐसी बातें न करें। हम बड़े से बड़े डॉक्टर से आपका इलाज़ कराएंगे। आप जरूर ठीक हो जाएंगे।"

मोहनदास ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- "मैं जानता हूँ कि तुम लोग मुझे बहुत प्यार करते हो, फिर भी तुम्हें सच्चाई को स्वीकार करना ही पड़ेगा। सच्चाई यही है कि अब मैं अधिक दिन जीवित नहीं रहूँगा। थोड़ी देर रुककर वह फिर बोला- मेरे पास लंबी चौड़ी जायदाद तो हैं नहीं, कुछ रुपया है, यह मकान है और जूते बनाने की कला है। मैं चाहता हूँ कि तुम तीनों अब से ही मेरी कला सीखना शुरू कर दो। मेरे बाद तीनों भाई मिलजुलकर

मैं काम करना और इस घर में एक साथ आराम से रहना। अपना रुपया तुम बाँट दूंगा। क्या तुम तीनों इस बात के लिए तैयार हो ? तीनों में बराबर बराब

बीच वाला बेटा सुरेश बोला-आपके पास तीन चीजें हैं। आप अपनी इच्छा से हम तीनों को एक एक चीज दे दें। बड़े बेटे ने भी उसकी बात का समर्थन किया। मोहनदास ने छोटे बेटे महेश से पूछा-बेटा तुम क्या चाहते हो? महेश बोला-पिता जी! आप तीनों को जो ठीक लगे, वही करें। मुझे आपका फैस स्वीकार होगा। अब मोहनदास ने रमेश से पूछा बोलो, तुम क्या लेना चाहते हो रमेश ने कहा- पिता जी इस घर के साथ मेरे बचपन की यादें जुड़ी है। मुझे तो यह घर दे दीजिए। मैं इसी के सहारे अपना जीवन काट लूँगा। मोहनदास ने कहा- ठीक है, यह घर में तुम्हें देता हूँ। सुरेश! अब तुम बताओ, तुम्हें क्या चाहिए?

सुरेश बोला-“पिता जी! आप मुझे अपना रुपया दे दीजिए। मैं अपनी बुद्धि से उसे और बढ़ा लूँगा। धन से जीवन के सब सुख खरीदे जा सकते हैं।" यह सुनकर मोहनदास के चेहरे पर मुस्कान आ गई। उसने कहा-“ठीक है, मैं तुम्हें अपना सारा धन दे देता हूँ।" इसके बाद मोहनदास ने अपने छोटे बेटे से कहा- "बेटे अब तो मेरे पास केवल कला बची है। क्या तुम इसे लेने को तैयार हो ? महेश प्रसन्न होकर बोबा- “पिता जजी। मुझे कुछ और नहीं चाहिए। आप मुझे अपनी कला सिखा दीजिए। मैं उसी से आपके नाम को अमर रखूँगा।"

कुछ समय बाद मोहनदास का देहोंत हो गया पिता के देहांत के बाद तीनों भाई अलग-अलग रहने लगे। एक दिन अचानक भूकंप आ गया। रमेश का घर पुराना था, इसलिए वह भूकंप के झटके नहीं सह सका। उसकी दीवारे ढह गईं और देखते ही देखते छत जमीन पर आ गिरी। रमेश ने बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचाई। घर की सब चीजें मिट्टी में दबकर नष्ट हो गई। इस भूकंम में आस-पड़ोस के भी मकान गिर गए। चारों और हा-हाकर मच गया। लोगों में भागा-दौड़ी मची थी। किसी को किसी का होश नहीं था।

सुरेश का घर वहाँ नया था, इसलिए भूकंप में उसका कुछ नहीं बिगड़ा। वह दौड़ता हुआ अपने बड़े भाई के पास गया । वहाँ अफरा तफरी मची हुई थी। वे मिट्टी के नीचे दबी चीजों को निकालने की कोशिश कर रहे थे, पर अँधेरा होने के कारण उन्हें सफलता नहीं मिली। थक-हारकर वे सुरेश के घर चल दिए।
इसी बीच कुछ चोर मौका देखकर सुरेश के घर में घुस आए और उसका सारा रुपया और सामान चुराकर ले गए। रमेश और सुरेश जब वहाँ पहुँचे तो सब कुछ लुट चुका था। महेश को जैसे ही अपने भाईयों की खबर मिली, वह दौड़ा-दौड़ा आया। उसने अपने भाइयों को दिलासा दिया और उन्हें अपने घर ले आया। उसने उनसे कहा- "भैया, आप दोनों चिंता न करें। मैं आपके साथ हूँ। सब ठीक हो जाएगा।। रमेश बोला- भाई! हम कितने मूर्ख हैं जो हमने अपने पिता जी से धन और मकान मांग लिया था। हमने यह सोचा ही नहीं था कि धन और मकान तो कभी नष्ट हो सकते हैं। सच्चा धन तो करोबार है जो तुम्हारे पास है। यह कभी भी नष्ट नहीं हो सकता ।

महेश ने कहा- “चलो यह भी अच्छा है कि तुम दोनों को अपनी गलती का एहसास हो गया। पिता जी की इच्छा थी कि हम तीनो मिल-जुलकर रहें और उनकी कला को सीखें। आप आराम से यहीं रहें। मैं आपको पिता जी की कला सिखा दूंगा।” यह सुनते ही रमेश और सुरेश की चेहरे खिल गए। उन्होंने अपने छोटे भाई को गले लगा लिया।

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