Mahabharat Katha | Pandavo ki raksha | lakshagrah se nikalne k baad ki kahani | Chapter 10

 पाँचों पांडव माता कुंती के साथ वारणावत के लिए चल पड़े । उनको हस्तिनापुर छोड़कर वारणावत जाने की खबर पाकर नगर के लोग उनके साथ हो लिए। बहुत दूर जाने के बाद युधिष्ठिर का कहा मानकर नगरवासियों को  लौट जाना पड़ा। दुर्योधन के षडयंत्र और उससे बचने का उपाय विदुर ने युधिष्ठिर को इस तरह गूढ़ भाषा में सिखा दिया था" कि जिससे दूसरे लोग समझ न सके।वारणावत  के लोग पांडवों के आगमन की खबर पाकर बड़े रवुश हुए और उनके वहाँ पहुँचने पर उन्होंने बड़े ठाठ से उनका स्वागत किया। जब तक लाख का भवन बनकर तैयार हुआ, पांडव दूसरे घरों में रहते रहे, जहां पुरोचन ने पहले से ही उनके ठहरने का प्रबंध कर रखा था। लाख का भवन बनकर तैयार हो गया, तो पुरोचन उन्हें उसमें ले गया। भवन में प्रवेश करते ही युधिष्ठिर ने उसे खूब ध्यान से देखा। विदुर की बातें उन्हें याद थी। ध्यान से देखने पर युधिष्ठिर को पता चल  गया कि यह घर जल्दी आग लगनेवाली चीजों से बना हुआ है। युधिष्ठिर ने भीम को भी यह भेद बता दिया; पर साथ ही उसे सावधान करते हुए कहा-" 

यद्यपि यह साफ़ मालूम हो गया है कि यह स्थान खतरनाक है, फिर भी हमें यु विचलित नहीं होना चाहिए। पुरोचन को इस बात का ज़रा भी पता न लगे कि उसके षडयंत्र का भेद हम पर खुल गया . है । मौका पाकर हमे यहाँ से निकल भागना होगा। पर अभी हमे जल्दी से ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए, जिससे शत्रु के मन में ज़रा भी संदेह पैदा होने की संभावना हो। " 

युधिष्ठिर की इस सलाह को भीमसेन सहित सब भाइयों तथा कुंती ने मान लिया। वे उसी लाख के भवन में रहने लगे। इतने में विदुर का भेजा हुआ एक सुंरग बनानेवाला कारीगर वारणावत नगर में आ पहुँचा। उसने एक दिन पांडवों को अकेले में पाकर उन्हें अपना परिचय देते हुए कहा-" आप लोगों की भलाई के लिए हस्तिनापुर से रवाना होते _ समय विदुर ने युधिष्ठिर से सांकेतिक भाषा में जो कुछ कहा था , वह बात मैं जानता हूँ। यही मेरे सच्चे मित्र होने का सबूत है। आप मुझ पर भरोसा रखें। मैं आप लोगों की रक्षा का प्रबंध करने के लिए आया हूँ। ” 

इसके बाद वह कारीगर महल में पहुँच गया औंर गुप्त रूप से कुछ दिनों में ही उसमें एक सुरंग बना दी। इस रास्ते से पांडव महल के अंदर से नीचे-ही-नीचे चहारदीवारी और गहरी  खाई को लाँघकर सुरक्षित बेखटके बाहर निकल सकते थे। यह काम इतने गुप्त रूप से और इस खूबी से हुआ कि पुरोचन को अंत तक इस बात की खबर न होने पाई। 

पुरोचन ने लाख के भवन के द्वार पर ही अपने रहने के लिए स्थान बनवा लिया था। इस कारण पांडवों को भी सारी रात हथियार लेकर चौकन्ने रहना पड़ता था। 

एक दिन पुरोचन ने सोचा कि अब पांडवों का काम तमाम करने का समय आ गया हैं। समझदार युधिष्ठिर उसके रंग-ढंग से ताड़ गए कि वह क्या सोच रहा है। युधिष्ठिर की सलाह से माता कुंती ने उसी रात को एक बड़े भोज का प्रबंध किया। नगर के सभी लोगों को भोजन कराया गया। बडी धूमधाम रही, मानो कोई बड़ा उत्सव हो। खूब खा-पोकर भवन के सब कर्मचारी गहरी नींद में सो गए। पुरोचन भी सो गया । 

आधी रात के समय भीमसेन ने भवन में कई जगह आग लगा दी और फिर पाँचों भाई माता कुंती के साथ सुरंग के रास्ते अँधेरे में रास्ता टटोलते-टटोलते बाहर निकल गए। भवन से बाहर वे निकले ही थे कि आग ने सारे भवन को अपनी लपटों में ले लिया। पुरोचन के रहने के मकान में भी आग लग गई। सारे नगर के लोग इकट्ठे हो गए और पांडवो के भवन को भयंकर आग की भेंट होते देखकर हाहाकार मचाने लगे। कौरवों के अत्याचार से जनता क्षुब्ध हो उठी और तरह-तरह से कौरवों की निंदा करने लगी। लोग क्रोध में अनाप-शनाप बकने लगे, हाय-तौबा मचाने लगे और उनके देखते-देखते सारा  भवन जलकर राख हो गया। पुरोचन का मकान और स्वयं पुरोचन भी आग की भेंट हो गया। 

वारणावत के लोगों ने तुरंत ही" हस्तिनापुर में खबर पहुँचा दी कि पांडव जिस भवन में ठहराए गए थे, वह जलकर राख हो गया है और भवन में कोई भी जिंदा नहीं बचा। धृतराष्ट्र और उनके बेटों ने पांडवों की मृत्यु पर बड़ा शोक मनाया। वे गंगा-किनारे गए और पांडवों तथा कुंती को जलांजलि दी। फिर सब मिलकर बड़े जोर-जोर से रोते और विलाप करते हुए घर लौटे। परंतु दार्शनिक विदुर ने शोक की मन ही मन दबा लिया। अधिक शीक-प्रदर्शन न किया। 

इसके अलावा विदुर को यह भी पवका बिश्वास था कि पांडव लाख के भवन से बचकर निकल गए होंगे। पितामह भीष्म तो मानो शोक के सागर ही में थे, पर उनको विदुर ने धीरज बँधाया और पांडवों के बचाव के लिए किए गए अपने सारे प्रबंध का हाल बताकर उन्हें चिंतामुक्त कर दिया। लाख के घर को जलता हुआ छोडकर पाँचों भाई माता कुंती के साथ बच निकले और जंगल में पहुँच गए। जंगल में पहुँचने पर भीमसेन ने देखा कि रातभर जगे होने तथा चिंता और भय से पीडित होने के कारण चारों भाई बहुत थके हुए हैं। 

माता कुंती की दशा तो बडी ही दयनीय थी। बेचारी थककर चूर हो गई थी। सो महाबली भीम ने माता को उठाकर अपने कंधे पर बैठा लिया और नकुल एवं सहदेव को कमर पर ले लिया। युधिष्ठिर और अर्जुन को दोनों हाथों से पकड़ लिया और वह उस जंगली रास्ते में उन्मत्त हाथी के समान झाड़-झंखाड़ और 

पेड़-पौधों को इधर-उधर हटाता व रौंदता हुआ तेजी से चलने लगा। जब वे सब गंगा के किनारे पहुँचे, तो वहाँ विदुर की भेजी हुई एक नाव मिली। युधिष्ठिर ने मल्लाह से सांकेतिक प्रश्न करके जाँच लिया कि वह मित्र है! वे लोग अगले दिन -शाम होने तक चलते ही रहे, ताकि किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँच जाएँ। 

सूरज डूब गया और रात हो चली भी। चारों तरफ़ अँधेरा अंधेरा छा गया। कुंती और पांडव एक तो थकावट के मारे चूर हो रहे थे, ऊपर से प्यास और नींद भी उन्हें सताने लगी। चक्कर-सा आने लगा। एक पग भी आगे बढना असंभव हो गया। भीम के सिवाए और सब भाई वहीं ज़मीन पर बैठ गए। कुंती से तो बैठा भी नहीं गया। वह दीनभाव से बोली-"मैं तो प्यास से मरी जा रही हूं। अब मुझसे बिलकुल चला नहीं जाता। धृतराष्ट्र के बेटे चाहें तो भले ही मुझे यहाँ से उठा ले जाएँ, मैं तो यहीँ पडी रहूँगी। " यह कहकर कुंती वहीं ज़मीन पर गिरकर बेहोश हो गई। 

माता और भाइयों का यह हाल देखकर क्षोभ के मारे भीमसेन का हदय दग्ध हो उठा। वह उस भयानक जंगल में बेधड़क घुस गया और इधर-उधर घूम-घामकर उसने एक जलाशय का पता लगा ही लिया। उसने पानी लाकर माता व भाइयों की प्यास बुझाई। पानी पीकर चारों भाई और माता कुंती ऐसे सोए कि उन्हें अपनी सुध-बुध तक न रही। अकेला भीमसेन मन-ही-मन कुछ सोचता हुआ वितित भाव से बैठा रहा। पाँचों भाई माता कुंती को लिए अनेक बिघ्न-बाधाआँ का सामना करते और बडी मुसीबतें झेलते हुए उस जंगली रास्ते में आगे बढ़ते ही चले गए। वे कभी माता को उठाकर तेज़ चलते, कभी थके-माँदे बैठ जाते। कभी एक दूसरे से हौड़ लगाकर रास्ता पार करते। वे ब्राह्मण ब्रह्मचारियों का वेश धरकर एकचक्रा नगरी में जाकर एक ब्राह्मण के घर में रहने लगे। माता कुंती के साथ पाँचों पांडव एकचक्रा नगरी में भिक्षा माँगकर अपनी गुज़र करके दिन बिताने लगे। 

भिक्षा के लिए जब पाँचों भाई निकल जाते, तो कुंती का जी बड़ा बेचैन हो उठता था। वह बडी चिंता से उनकी बाट जोहती रहती। उनके लौटने में ज़रा भी देर हो जाती तो कुंती के मन में तरह-तरह की आशंकाएँ उठने लगती थीं। 

पाँचों भाई भिक्षा में जितना भोजन लाते, कुंती उसके दो हिस्से कर देती। एक हिस्सा भीमसेन को दे देती और बाकी आधे में से पाँच हिस्से करके चारों बेटे और खुद खा लेती थी। तिसपर भी भीमसेन की भूख नहीं मिटती थी। हमेशा ही भूखा रहने के कारण वह दिन-पर-दिन दुबला होने लगा। भीमसेन का यह हाल देखकर  कुंती और युधिष्ठिर बड़े चिंतित रहने लगे। थोड़े से भोजन से पेट न भरता था, सो भीमसेन ने एक कुम्हार से दोस्ती कर ली। उसने मिट्टी आदि खोदने में मदद करके उसको खुश कर दिया । कुम्हार भीम से बड़ा रवुश हुआ और एक बडी भारी हाँडी बनाकर उसको दी। भीम उसी हाँडी को लेकर भिक्षा के लिए निकलने लगा। उसका विशाल शरीर और उसकी वह विलक्षण हाँडी देखकर बच्चे तो हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते। 

एक दिन चारों भाई भिक्षा के लिए गए। अकेला भीमसेन ही माता कुंती के साथ घर पर रहा। इतने में ब्राह्मण के घर के भीतर से बिलख-बिलखकर रोने की आवाज़ आई। अंदर जाकर देखा कि ब्राह्मण और उसकी पत्नी आँखो में आँसू भरे सिसकियाँ लेते हुए एक दूसरे से बातें कर रहे हैं। 

ब्राह्मण बड़े दुखी हृदय से अपनी पत्नी से कह रहा था-“कितनी ही बार मैंने तुम्हें समझाया कि इस अंधेर नगरी को छोड़कर कहीं और चले जाएँ, पर तुम नहीं मानीं। यही हठ करती रहीं कि यह मेरे बाप-दादा का गॉव है, यहीं रहूंगी। बोलो, अब क्या कहती हो? अपनी बेटी की भी बलि कैसे चढा दूँ और पुत्र को कैसे काल कवलित होने दूँ? यदि मैं शरीर त्यागता हूँ, तो फिर इन अनाथ बच्चों का भरण-पोषण कौन करेगा? हाया मैं अब क्या करूं? और कुछ करने से तो अच्छा उपाय यह है कि सभी एक साथ मौत को गले लगा लें। यही अच्छा होगा। ” कहते-कहते ब्राह्मण सिसक-सिसककर रो पड़ा। 

ब्राह्मण की पत्नी रोती…रोती बोली…" प्राणनाथ ! मुझे मरने का कोई दुख नहीं है। मेंरी मृत्यु के बाद आप चाहें, तो दूसरी पत्नी ला सकते हैं। अब मुझे प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दें, ताकि मैं राक्षस का भोजन बनूँ। ” 

पत्नी की से व्यथाभरी ब्रातें सुनकर ब्राह्मण से न रहा गया। वह बोला…"प्रिये मुझसे बड़ा दुरात्मा और पापी कौन होगा, जो तुम्हें राक्षस की बलि चढा दे और खुद जीवित रहे?” 

माता-पिता को इस तरह बातें करते देख ब्राह्मण की बेटी से न रहा गया । उसने करुण स्वर में कहा-" पिताजी, अच्छा तो यह है कि राक्षस के पास आप मुझे भेज दें। ” सबको इस तरह रोते देखकर ब्राह्मण का नन्हा सा बालक पास में पड़ी हुई सूखी लकडी हाथ में लेकर घुमाता हुआ बीला…"उस राक्षस को तो मैं ही इस लकडी से इस तरह जोर से मार डालूँगा। ” 

कुंती खड़ी खड़ी यह सब  देख रही थी। अपनी बात कहने का उसने ठीक मौका देखा वह बोली-“हे ब्राह्मण, क्या आप कृपा करके मुझे बता सकते हैं कि आप लोगों के इस असमय दुख का कारण क्या है?" 

ब्राह्मण ने कहा-"देवी सुनिए' इस नगरी ’ के समीप एक गुफा है, जिसमें बक नामक एक बड़ा अत्याचारी राक्षस रहता है। पिछले तेरह वर्षों से इस नगरी के लोगों पर वह बडे जुल्म ढा रहा है। इस देश का राजा, जो वेत्रकीय नाम के महल में रहता है, इतना निकम्मा है कि प्रजा को राक्षस के अत्याचार से बचा नहीं रहा है। इससे घबराकर नगर के लोगों ने मिलकर उससे बडी अनुनय-विनय की कि कोई-न-कोई नियम बना ले। बकासुर ने लोगों की यह बात मान ली और तब से इस 

समझौते के अनुसार यह नियम बना हुआ है कि लोग बारी…बारी से एक-एक आदमी और खाने की चीजें हर सप्ताह उसे पहुँचा दिया करते हैं। इस सप्ताह में उस राक्षस के खाने के लिए आदमी और भोजन भेजने की हमारी बारी है। अब तो मैंने यही सोचा है कि सबको साथ लेकर ही राक्षस के यास चला जाऊँगा। आपने पूछा सो आपको बता दिया। इस कष्ट को दूर करना तो आपके बस में भी नहीं है। 

ब्राह्मण की बात का कोई उत्तर देने से पहले कुंती ने भीमसेन से सलाह की। उसने लौटकर कहा-"विप्रवर, आप इस बात की चिंता छोड दें। मेरे पाँच बेटे हैं, उनमें से एक आज राक्षस के पास भोजन लेकर चला जाएगा। " 

सुनकर ब्राह्मण चौंक पड़ा और बोला-" आप भी कैसी बात कहती हैं। आप हमारी अतिथि हैं। हमारे घर में आश्रय लिए हुए हैं। आपके बेटे को मौत के मुँह में मैं भेजूं, यह कहाँ का न्याय है? मुझसे यह नहीं हो सकता।” 


कुंती को डर था कि यदि यह बात फैल गई, तो दुर्योधन और उनके साथियों को पता लग जाएगा कि पांडव एकचक्रा नगरी में छिपे हुए हैं। इसीलिए उसने ब्राह्मण से इस बात को गुप्त रखने का आग्रह किया था। कुंती ने जब भीमसेन को बताया कि उसे बकासुर के पास भोजन-सामग्री लेकर जाना होगा, तो युधिष्ठिर खीझ उठे और बोले-"यह तुम कैसा दुस्साहस करने चली हो, माँ!” 

युधिष्ठिर की इन कड़ी बातों का उत्तर देते हुए कुंती बोली-"बेटा युधिष्ठिरा इस ब्राह्मण के घर में हमने कई दिन आराम से बिताए हैं। जब इन पर विपदा पडी है, तो मनुष्य होने के नाते हमें उसका बदला चुकाना ही चाहिए।

मैं पुत्र भीम की शक्ति और बल से अच्छी _ तरह परिचित हूं। तुम इस बात की चिंता मत करो। जो हमें वारणावत से यहां तक उठा लाया, जिसने हिडिंबा का वध किया, उस भीम के बारे में मुझे न तो कोई डर है, न चिंता। भीम को बकासुर के पास भेजना हमारा कर्तव्य है। “ 

इसके बाद नियम के अनुसार नगर के लोग खाने-पोने की चीजें गाड़ी में रखकर ले आए। भीमसेन उछलकर गाड़ी में बैठ गया। शहर के लोग भी बाजे बजाते हुए कुछ दूर तक उसके पीछे-पोछे चले। एक निश्चित स्थान पर लोग रुक गए और अकेला भीम गाड़ी दौड़ाता हुआ आगे गया । 


भीम द्वारा बकासुर का वद्ध 

उधर राक्षस मारे भूख के तड़प रहा था। जब बहुत देर हो गई , तो बड़े क्रोध के साथ वह गुफा के बाहर आया। देखता क्या है कि एक मोटा सा मनुष्य बड़े आराम से बैठा हूआ भोजन कर रहा है। यह देखकर बकासुर की आँखें क्रोध से एकदम लाल हो उठी। इतने में भीमसेन को भी निगाह उस पर पडी। उसने हँसते हुए उसका नाम लेकर पुकारा। भीमसेन की यह ढिठाई देखकर राक्षस गुस्से में भर गया और तेजी से भीमसेन पर झपटा। भीमसेन ने बकासुर को अपनी और आते देखा, तो उसने उसकी तरफ़ पीठ फेर ली और कुछ भी परवाह न करके खाने में ही लगा रहा। खाली हाथों काम न बनते देखकर राक्षस ने एक बड़ा सा पेड़ जड़ से उखाड लिया और उसे भीमसेन पर दे मारा, परंतु भीमसेन ने बाएँ हाथ पर उसे रोक लिया। दोनों में भयानक मुठभेड हो गई। भीमसेन ने बकासुर को ठोकरें मारकर गिरा दिया और कहा -“दुष्ट राक्षस! ज़रा विश्राम तो करने दे।”

थोडी देर सुस्ताकर भीम ने फिर कहा… " अच्छा! अब उठो! " बकासुर उठकर भीम के साथ लड़ने लगा। भीमसेन ने उसको ठोकरें लगाकर फिर गिरा दिया । इस तरह बार बार पछाड़ खाने पर भी राक्षस उठकर भीड़ जाता था। आखिर भीम ने उसे मुँह के बल गिरा दिया और उसकी पीठ पर घुटनों की मार देकर उसकी रीढ़ तोड डाली । राक्षस पीडा के मारे चीख उठा और उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। भीमसेन उसकी लाश को घसीट लाया और उसे नगर के फाटक पर जाकर पटक दिया । फिर उसने घर जाकर मां को सारा हाल बताया। 

No comments:

Powered by Blogger.