श्रद्धा और बल-Motivation

जिसमें आत्मविश्वास नहीं है वही नास्तिक है। प्राचीन धर्मों में कहा गया है, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। नूतन धर्म कहता है,जो आत्मविश्वास नहीं रखता वही नास्तिक है।


संसार का इतिहास उन थोड़े से व्यक्तियों का इतिहास है, जिनमें आत्मविश्वास था। यह विश्वास अन्त:स्थित देवत्व को ललकार कर प्रकट कर देता है। तब व्यक्ति कुछ भी कर सकता है, सर्व समर्थ हो जाता है। असफलता तभी होती है, जब तुम अन्त:स्थ अमोघ शक्ति को अभिव्यक्त करने का यथेष्ट प्रयत्न नहीं करते। जिस क्षण व्यक्ति या राष्ट्र आत्मविश्वास खो देता है, उसी क्षण उसकी मृत्यु आ जाती है।

विश्वास - विश्वास! अपने आप पर विश्वास, परमात्मा के ऊपर विश्वास - यही उन्नति करने का एकमात्र उपाय है। यदि पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड देवताओं के ऊपर और विदेशियों ने बीच बीच में जिन देवताओं को तुम्हारे बीच घुसा दिया है, उन सब पर भी तुम्हारा विश्वास हो और अपने आप पर विश्वास न हो, तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते।

यह कभी न सोचना कि आत्मा के लिए कुछ असम्भव है। ऐसा कहना ही भयानक नास्तिकता है। यदि पाप नामक कोई वस्तु है तो यह कहना ही एकमात्र पाप है कि मैं दुर्बल हूँ अथवा अन्य कोई दुर्बल है।

तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे; यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे, तो तुम दुर्बल हो जाओगे; बलवान सोचोगे तो बलवान बन जाओगे।

मुक्त होओ; किसी दूसरे के पास से कुछ न चाहो। मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि यदि तुम अपने जीवन की अतीत घटनाएँ याद  करो तो देखोगे कि तुम सदैव व्यर्थ ही दूसरों से सहायता पाने की चेष्टा करते रहे, किन्तु कभी पा नहीं सके; जो कुछ सहायता पायी है, वह अपने अन्दर से ही थी।

कभी 'नहीं' मत कहना, 'मैं नहीं कर सकता' यह कभी न कहना।। ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि तुम अनन्तस्वरूप हो। तुम्हारे स्वरूप की तुलना में देश-काल भी कुछ नहीं है। तुम्हारी जो इच्छा होगी वही कर सकते हो, तुम सर्वशक्तिमान हो।

तुम तो ईश्वर की सन्तान हो, अमर आनन्द के भागीदार हो, पवित्र और पूर्ण आत्मा हो। तुम इस मर्त्यभूमि पर देवता हो। तुम भला पापी! मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानवस्वभाव पर घोर लांछन है। उठो! आओ! ऐ सिंहो! इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दो कि तुम भेड़ हो, तुम तो जरा-मरण-रहित नित्यानन्दमय आत्मा हो। 

ये संघर्ष, ये भूलें रहने से हर्ज भी क्या? मैंने गाय को कभी झूठ बोलते नहीं सुना, पर वह सदा गाय ही रहती है, मनुष्य कभी नहीं हो जाती। अतएव यदि बार बार असफल हो जाओ, तो भी क्या? कोई हानि नहीं, सहस्र बार इस आदर्श को हृदय में धारण करो और यदि सहस्र बार भी असफल हो जाओ, तो एक बार फिर प्रयत्न करो। 

मनुष्य को सदैव दुर्बलता की याद कराते रहना उसकी दर्बलता का प्रतिकार नहीं है - बल्कि उसे अपने बल का स्मरण करा देना ही उसके प्रतिकार का उपाय है। उनमें जो बल पहले से ही विद्यमान है उसका उन्हें स्मरण कराओ।

 उपनिषदों में यदि कोई एक ऐसा शब्द है जो वज्र-वेग से अज्ञान- निर्भयता। राशि के ऊपर पतित होता है, उसे बिलकुल उड़ा देता है, तो वह है 'अभी:'-निर्भयता|

 तुम  देख सकते हो कि मैंने उपनिषदों के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र से उद्धरण कभी नहीं दिये; उपनिषदों से भी केवल 'बल' का आदर्श ही। वेद एवं वेदान्त का समस्त सार तथा अन्य सब कुछ इस एक शब्द में  निहित है।                                                                                                                                                 (सू.सु. : पृ. ४६)

हे मेरे युवकबन्धगुण, तुम बलवान बनो - यही तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है। गीता पाठ करने की अपेक्षा तुम फुटबाल खेलने से स्वर्ग के अधिक समीप पहुँचोगे। मैंने अत्यन्त साहसपूर्वक ये बातें कहीं है और इनको कहना अत्यावश्यक है, कारण मैं तुमको प्यार करता हूँ। मैं जानता हूँ कि कंकड़ कहाँ चुभता है। मैंने कुछ अनुभव प्राप्त किया है। बलवान शरीर से और मजबूत पुट्ठों से तुम गीता को अधिक समझ सकोगे।                                                                                                                                                                                                     ( भा.वि. १७६)

मैं हरएक से यही एक प्रश्न करता हूँ – “क्या तुम बलवान हो? क्या तुम्हें बल प्राप्त होता है?" क्योंकि मैं जानता हूँ, एकमात्र सत्य ही बल प्रदान करता है। ... बल ही भवरोग की दवा है।                                     (ज्ञा.यो. ३१०-११)

यह एक बड़ा सत्य है कि बल ही जीवन है और दुर्बलता ही मरण। बल ही अनन्त सुख है, चिरन्तन और शाश्वत जीवन है और दुर्बलता ही मृत्यु।                                                                                                 (आ.मा. १२१) 

सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए, मन का अपरिमित बल चाहिए। अध्यवसशील साधक कहता है, “मैं चुल्लू से समुद्र पी जाऊँगा। मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर-चूर हो जायेंगे।” इस प्रकार का उत्साह, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो। उस परमपद की प्राप्ति अवश्य होगी।                                  (रा.यो. ९३)

केवल मनुष्यों की आवश्यकता है; और सब कुछ हो जायगा, किन्त आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धासम्पन्न और अन्त तक कपटरहित नवयवकों की। इस प्रकार के सौ नवयुवकों से संसार के सभी भाव बदल दिये जा सकते हैं।                                                                                                                                 (भा.वि. १५२)

केवल खा-पीकर आलसी जीवन जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है; पराजित होकर जीने की अपेक्षा युद्ध-क्षेत्र में मरना श्रेयस्कर है।                                                                                                             (ज्ञा.यो. १३१-३२) 

अपनी बहादुरी तो दिखाओ। प्रिय भाई, मुक्ति न मिली तो न सही। दो-चार बार नरक ही जाना पड़े तो हानि ही क्या है? क्या यह बात असत्य है? -

मनसि वचसिकाये पुण्यपीयूषपूर्णाः त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीयमाणः। परगुणपरमाणुं पर्वतीकृत्य केचित् निजहदि विकसन्तः सन्ति सन्तः क्रियन्तः।।* - भर्तृहरि

                                                                                                                                     (पत्रा. १, ३९८-९९)

 सभी के आन्तरिक प्रयास के बिना क्या कोई कार्य हो सकता है?"उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः" (उद्योगी पुरुषसिंह ही लक्ष्मी को प्राप्त करता है।) इत्यादि। पीछे की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है - forward | (आगे बढो)। अनन्त शक्ति, अनन्त उत्साह, अनन्त साहस तथा अनन्त धय। चाहिए, तब कहीं महान् कार्य सम्पन्न होता है।                                                                                                                                            (पत्रा. २, ६१)

निराश मत होओ; मार्ग बड़ा कठिन है - छरे की धार पर चलन के समान दुर्गम; फिर भी निराश मत होओ; उठो, जागो और अपने परम आदर्श को प्राप्त करो।                                                                           (ज्ञा.यो. १३२)

तू  क्यों रोता है, भाई? तेरे लिए न मृत्य है, न रोग। तू  क्यों रोता  है भाई? तेरे लिए न दुःख है, न शोक। तू क्यों रोता है. भाई? तेरे विषय में परिणाम या मृत्यु की बात कही ही नहीं गयी। त तो सत्स्वरूप है। .. अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जा।                                                                                                                                (ज्ञा.यो. ६७-६८)

जिसका जो जी चाहे कहे, आपे में मस्त रहो - दुनिया तुम्हारे पैरों तले आ जाएगी, चिन्ता मत करो। लोग कहते हैं - इस पर विश्वास करो, उस पर विश्वास करो; मैं कहता हूँ - पहले अपने आप पर विश्वास करो। अपने पर विश्वास करो - सब शक्ति तुम में हैं - इसकी धारणा करो और शक्ति जगाओ - कहो, हम सब कुछ कर सकते है। “नहीं नहीं कहने से साँप का विष भी असर नहीं करता।"                                                                         (पत्रा. १, १७९) 


एक बार मैं काशी में किसी जगह जा रहा था, उस जगह एक तरफ भारी जलाशय और दूसरी तरफ ऊँची दीवाल थी। उस स्थान पर बहुत से बन्दर रहते थे। काशी के बन्दर बड़े दुष्ट होते हैं। अब उनके मस्तिष्क में यह विचार पैदा हुआ कि वे मुझे उस रास्ते पर से न जाने दें। वे विकट चीत्कार करने लगे और झट आकर मेरे पैरों से जकड़ने लगे। उनको निकट देखकर मैं भागने लगा, किन्तु मैं जितना ज्यादा जोर से दौड़ने लगा, वे उतनी ही अधिक तेजी से आकर मुझे काटने लगे। अन्त में उनके हाथ से छुटकारा पाना असम्भव प्रतीत हुआ - ठीक ऐसे ही समय एक अपरिचित मनुष्य ने आकर मुझे आवाज दी, "बन्दरों का सामना करो।" मैं भी जैसे ही उलटकर उनके सामने खड़ा हुआ, वैसे ही वे पीछे हटकर भाग गये। समस्त जीवन में हमको यह शिक्षा लेनी होगी - जो कुछ भी भयानक है, उसका सामना करना पड़ेगा, साहसपूर्वक उसके सामने खड़ा होना पड़ेगा।                                   (ध.र. ११-१२)



                  

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