राजा प्रतापराय अपनी प्रजा के प्रति बहुत ही कर्त्तव्यनिष्ठ था। एक बार प्रजा ने अपने राजा के यश और कल्याण की वृद्धि के लिए यज्ञ करने का विचार किया। राजा ने यज्ञ की अनुमति दे दी, साथ ही इस यज्ञ के लिए हर संभव मदद की भी पेशकश की। किंतु प्रजा प्रतिनिधियों ने यह कहकर मानने से इनकार कर दिया कि यह यज्ञ राजा के कल्याण हेतु प्रजा की तरफ से होगा। अतः इस यज्ञ का सारा खर्च भी प्रजा मिलकर वहन करेगी, साथ ही प्रतिनिधियों ने राजा से यज्ञ में उपस्थित होने को कहा। राजा ने उनकी बात को स्वीकार कर लिया।
नियत समय पर यज्ञ शरू हो गया। 21 दिन का यज्ञ था। प्रतिदिन राजा स्वयं यज्ञ में उपस्थित होता और अपने हाथों से आहुतियां देता। यज्ञ को बीस दिन हो चुके थे। प्रजा को बस इंतजार था तो इक्कीसवें दिन का। इस दिन राजा को इक्कीस आहुतियां देनी थीं। इसके बाद राजा प्रतापराय का यश पूरी दुनिया में फैल जाना था। __ इक्कीसवें दिन प्रात: यज्ञ की सारी तैयारियां हो गईं। राजा का इंतजार हो रहा था। जब काफी देर तक राजा वहां नहीं पहुंचा तो कुछ लोग महल में चले गए। वहां पता चला कि राजा वहां नहीं है, वह सुबह-सवेरे ही सैनिकों के साथ कहीं चला गया था।
प्रजा को जब यह खबर मिली तो वह उदास हो गई। यज्ञ भी पूर्ण नहीं हो पाया। चार दिन बाद जब राजा लौटा तो लोग उससे मिलने महल में गए। राजा ने उनसे कहा, 'मुझे अफसोस है कि आप लोगों का यज्ञ पूरा नहीं हो पाया, किंतु मेरा जाना जरूरी था। पड़ोसी राज्य ने हम पर आक्रमण कर दिया था और वे लोग नगर की सीमा तक आ गए थे। हम लोगों ने दुश्मनों को मार भगाया।'
प्रजा खुश हई और राजा को बधाई देते हुए कहा, 'महाराज यदि एक दिन और रुक जाते तो । आप यशस्वी राजा बन जाते।'
राजा ने कहा, 'यदि मैं एक दिन और रुक जाता तो हम लोग पड़ोसी राज्य के गुलाम हो जाते। आज भले ही मैं यशस्वी नहीं हूं, लेकिन स्वतंत्र तो हूं। मैं राजा हूं और प्रजा के प्रति मेरा यह कर्त्तव्य है कि मैं उन्हें स्वतंत्र वातावरण दूं।'
राजा का सर्वप्रथम धर्म है प्रजा की रक्षा करना। इसी से उसके यश-कीर्ति का अनुमान लगता है। यज्ञ करने से राजा यशस्वी होता या नहीं, यह तो ऊपरवाला जाने। लेकिन उस समय का यही तकाजा था कि सीमा पर पहुंचे शत्रु को मुंहतोड़ जवाब दिया जाता, जैसा उस समझदार राजा ने दिया भी।
No comments: